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कब कटी है / त्रिलोचन
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कब कटी है आँसुओं से राह जीवन की
लोटता है धूल में मन
यदि कहीं हारा
तन झुके चाहे न कुछ भी
है यही धारा
दीप सा विश्वास ही है चाह जीवन की
चींटियों की पाँत रेखा सी
अँकी पथ पर
लक्ष्य की गति लगन इस
जीव की तत्पर
साँस है संकल्प, सुधि है थाह जीवन की
दूब पैरों के तले से
सिर उठाती है
व्योम को दिखला समुद्भव
मौन गाती है
छवि हरी उस की, हुई परवाह जीवन की
बाढ़ वर्षा की, जगत है
और ये लहरें
चल रहीं उठ गिर अनवरत
कहीं जा ठहरें
एक उत्सव एक ही है आह जीवन की
(रचना-काल - 31-10-48)