भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कब तक / अनिरुद्ध प्रसाद विमल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मुट्ठी में महिने भर का
वेतन दबाए
सिद्धार्थ
कोलतार की सड़क पर
हाँफते जा रहा था
जैसे दिन भर
उसकी अभ्यस्त अँगुलियाँ
मशीन पर
तेज-तेज सरसराती रहीं थीं
उसे लगा
जैसे वह प्रेत हो गया है
किसी तांत्रिक के
वशीकरण का शिकार
हाँ-
वह शिकार ही तो हो गया है
अपनी यशोधरा का
राहुल का
उसका जीवन
कितना उलझ-पुलझ गया है
वह तब से लेकर
आजतक
सरपट दौड़ता ही तो रहा है
भारी टमटम में जुते
दम तोड़ते घोड़े की तरह
उसकी देह का हाड़ हाड़
उभर आया है
जैसे मधुआ के

घर का छप्पर उजड़ जाने पर
बाँस की पट्टियाँ
बाहर निकल आई हो
आखिर वह कबतक
यूँ ही हाँफता रहेगा
यूँ ही मरता रहेगा
राहुल को जिलाने के लिए
यशोधरा को
जिंदा रखने के लिए

सब व्यर्थ हैं
व्यर्थ हैं-
कर्त्तव्य
उत्तरदायित्व का बोध

सिद्धार्थ एक क्षण के लिये
ठिठक गया
दौड़ती सड़क पर
जिसके लिये अब
अनिवार्य हो गई थी
सुजाता की खीर
(उसके बुद्धत्व की प्राप्ति के लिए)