कब बैठ पाये हम सुकून से / अश्वनी शर्मा
कब बैठ पाये हम सुकून से
इस झोपड़ी की छांह में
कब देख पाये हम डूबता या उगता सूरज
यूं ही कभी अलसाये से बैठकर
टीलों की गोद में
कब रख पाया मैं सर तुम्हारी गोद में
या हाथ में हाथ डाले घूम पाये हम
उस तस्वीरों वाली किताब की तरह
हम तो उलझे रहे, लड़ते रहे
आधी से ज्यादा जिंदगी
अकाल से
एक घड़े पानी की कीमत
जो तुम्हरा सिर और पिंडलियां जानती हैं
उतना ही मेरा मन भी जानता है
तपती रेत पर उम्र भर चलते-चलते
पसीना भी शर्माता है अब
नहीं बचा पानी आंख में भी
हां बचा है शायद कहीं
तुम्हारे और मेरे मन में
बस इस पानी को सहेज पायें हम
ये रहा तो हम लड़ लेंगे
अकाल, दुकाल या त्रिकाल किसी से भी
अपनी ये लड़ाई अकाल से नहीं
साक्षात् काल से ही है
हमसे पहले भी हमारे बाद भी
हमारे पूर्वज भी हमारी संतति भी
जीते रहे हैं, जियेंगे ये अभिशप्त जीवन
दो बूंद पानी और मुटठ्ीभर बाजरा
काफी है जिंदाभर रहने को
रूठा ही रहता है राम हमसे
हम शायद उस परमात्मा के
बेमन से गढ़े गये खिलौने हैं
जिन्हैं भेज दिया उसने
बूंद-बूंद पानी को तरसने के लिये
राम चाहे रूठा हो हमसे हम नहीं रूठे हैं राम से
हमारी आस्था जिंदा है राम में
इक-दूजे में
जिंदा रहने में
कोई भी काल या अकाल तोड़ नहीं पायेगा
हमारी ये अटूट आस्था
कि हम पैदा हुए हैं तो
जीना हमारा धर्म है
निबाहेंगे हम
अंतिम सांस तक।