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कभी-कभी / अपर्णा अनेकवर्णा
Kavita Kosh से
गुज़रते दिन से पाँव पोंछ कर
बीत गए पलों की टेक लगा कर
बैठ जाती हूँ
बिना किसी भागीदारी.. किसी जुड़ाव के
बिना कोई धारणा गढ़े
ज़िन्दगी की आँच कर मद्धिम
उसे दूर से ही खदबदाते देखती रहती हूँ
यूँ जीवन का झोल गाढ़ा हो पकता रहता है
दुनिया इर्द-गिर्द मेरे सर्राटे से गुज़रती जाती है
मुझ लगभग-समाधिस्थ द्वीप को
बिना छुए.. बिना चिहुँकाए...
ऐसे पलों में मेरी हर साँस उतर कर
मेरी छाती से, आ बैठती है पास मेरे
अपने मनकों को धोती है
नई कर लेती है पिरोई हुई अपनी डोरी