कमाल की औरतें २२ / शैलजा पाठक
लड़कियां बोलती नहीं...चुप रह जाती हैं
मुहल्ले चबूतरे पर करती हैं बतकुचन
आंख मटका कर न जाने क्या-क्या किस्से सुनाती हैं
उम्र में बड़ी औरतों की बातें कसकती सी समझ जाती हैं
नई दुल्हन की कलाई पर उतर आई स्याही को सहलाती हैं
समझती सी सब समझ जाती हैं
ये तुम्हारी दुनिया को मन ही मन तोलती हैं
लड़कियां बोलती नहीं...चुप रह जाती हैं
पहाड़े से ज्यादा रटती हैं ज़िन्दगी की गिनती
मीठे से नमकीन, नमकीन से मीठे
डिब्बे भरती खाली हो जाती हैं
उभरती छातियों पर झुक जाती हैं
फूल काढ़ते हुए कांटा सी
अपनी ही उंगलियों में चुभ जाती हैं
बूंद भर खून को बिना उफ होंठ में दबाती हैं
मन के रहस्य से बेचैन हैं इनकी चादरें
ये सुबह सारे शिकन सीधी कर जाती हैं
लड़कियां बोलती नहीं...चुप रह जाती हैं
ये टूटी चैन को धागे से बांधती हैं
दाग पर रगड़ती है नींबू
दर्द को कमर पर ढोती बार-बार
गुसलखाने में मुंह का तनाव धोकर आती हैं
बाज़ार की भीड़ से घबरा कर सिमट जाती हैं
भाई के साथ नहीं निकलना चाहतीं बाहर
मां बाप तक नहीं पहुंचने देतीं कोई खबर
गली के जवान लड़कों की फब्तियों से कितनी बेजार
घर में कनस्तर में रखे आटे सी सफेद हो जाती हैं
लड़कियां नही बोलती...चुप रह जाती हैं
ये जब बोलती हैं तो गाड़ दी जाती हैं
जमीन में बस्ते को स्टोर रूम में रख दिया जाता है
रिश्तेदारों से रिश्ते की बातें होती हैं शुरू
घर के काम में बनाई जाती हैं पारंगत
छत पर चढ़ती है अंधेरे के साथ
चांद देखती हैं तो नीचे से खींच लाती हैं अपनों की आवाज़
आवाज़ उठाती हैं तो तमाशबीनों की भीड़ जमा होती है
आसपास डराई-धमकाई जाती हैं
पिता के काम...मां की शालीनता पर उठते हैं सवाल
भाई से नहीं मिलाती आंख
ये बोलती हैं तो बदनाम होती हैं
बस्ते को स्टोर रूम में नही रखवाना इन्हें
ना आनन-फानन में करवाने हैं पीले हाथ
छत, आसमान, नदियों के रास्ते ये बढऩा चाहती हैं
ये बदबूदार सोच से घिरी लड़कियां
गन्दी नजर से लिथड़ी लड़कियां
चुपचाप अच्छी लड़कियां बन जाती हैं, मुस्कराती हैं
लड़कियां बोलती नहीं...चुप रह जाती हैं