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कलकत्ते की एक रात / चंद्रभूषण
Kavita Kosh से
कितना बजा?
कोई फ़र्क नहीं
चलते चलो, बस चलते चलो
सुन्न शहर के
कठुआए आसमान में
मरी मछलियों से उतराए तारे
थके डैनों से रात खेता
भटका एक समुद्री पांखी
धुंध के सागर में डूब रहा
एक अदद आवारा चांद
कोई वहां है?
वहां, अलसाए पेड़ों के पीछे
क्या कोई है?
तुम हो जूलियट?
तुम हो वहां?
लैला, शीरीं, सस्सी
क्या तुम हो
अपनी शाश्वत प्रतीक्षा के साथ?
जो भी हो तुम,
चली जाओ
लौट जाओ अभिशप्त प्रेमिकाओं
गूंजने दो आज
इन सुन्न पड़ी सड़कों पर
सिर्फ दो पैरों की आवाज
कभी-कभी तो आती है
यूं भरी-भरी आवारा रात
खुद में खोए पंछी सा
हौले-हौले उड़ता रहे
कभी-कभी तो होता है
यूं भरा-भरा आवारा मन