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कल आज और कल / अहिल्या मिश्र

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एक धुंध भरी उदास सांझ को
मैं अपने राइटिंग टेबल पर
झुकी देख रही थी
जीवन का दस्तावेज।

जिस में कल था, खाली बेमकसद
फटे कुर्ते की तरह, कील पर
उलझी लटकी हुई।
उसमें था लिखा हुआ
बेकारी, बटमारी और बेजारी
कोई पन्ना नहीं दिखा खुशहाली का।

आज पृष्ठ खोले बैठी हूँ
कलम सुनहरे अक्षरों का आवाहन कर
सिर मुड़ा, मन कुर्बान कर
जीवन को शाश्वत बनाने की ठान कर
कर्म युद्ध / धर्म युद्ध / जीवन युद्ध में
साहस / सक्रियता / सफलता पहचान कर
लड़ने को बकाया रखने का निश्चय
डर को डंडे मारने का परिचय देना चाहती हूँ।

रहा एक और कल अब शेष
जीवन खिड़की से छन कर आती
बाल सूर्य की स्वर्णिम आभा की तरह
कालरात्रि के कराल गाल से वसुधा को उबारती

स्वप्निल सुबह को सच्चाई में परिणित करती।
लहराती बलखाती पर्वतीय नदियों की तरह
कल-कल, छल-छल कलोले लेकर
हरहराती स्व रक्षा को समर्पित करने आएगी
बस इंतज़ार होगा केवल उस सुबह का।