कवि, हुआ क्या फिर / अज्ञेय
कवि, हुआ क्या फिर
तुम्हारे हृदय को यदि लग गयी है ठेस?
चिड़ी-दिल को जमा लो मूठ पर ('ऐहे, सितम, सैयाद!')
न जाने किस झरे गुल की सिसकती याद में बुलबुल तड़पती है-
न पूछो, दोस्त! हम भी रो रहे हैं लिये टूटा दिल!
('मियाँ, बुलबुल लड़ाओगे?')
तुम्हारी भावनाएँ जग उठी हैं!
बिछ चली पनचादरें ये एक चुल्लू आँसुओं की-डूब मर, बरसात!
सुनो कवि! भावनाएँ नहीं हैं सोता, भावनाएँ खाद हैं केवल!
जरा उन को दबा रक्खो-
जरा-सा और पकने दो, ताने और तचने दो
अँधेरी तहों की पुट में पिघलने और पचने दो;
रिसने और रचने दो-
कि उन का सार बन कर चेतना की धरा को कुछ उर्वरा कर दे;
भावनाएँ तभी फलती हैं कि उन से लोक के कल्याण का अंकुर कहीं फूटे।
कवि, हृदय को लग गयी है ठेस? धरा में हल चलेगा!
मगर तुम तो गरेबाँ टोह कर देखो
कि क्या वह लोक के कल्याण का भी बीज तुम में है?
इलाहाबाद, 9 सितम्बर, 1949