कविता-3 / अनिरुद्ध प्रसाद विमल
सुन लो भाई !
अब मुझसे कविता नहीं होगी।
मुझे व्यर्थ प्रेरित करने से क्या लाभ ?
देखो यह मेरा घर है
जहाँ तुम्हें लाख खोजने पर
मिलेगी एक टूटी हुई खाट,
चिथड़ा-चिथड़ा हुआ बिछौना,
ऊजड़ा हुआ छप्पर
जिसके मुन्हाँ से बेशरम सूरज
न जाने कितने बरसों से हुलक रहा है।
कितनी देर से लिखने के लिए बैठा हूँ
चाहता हूँ कोई एक कविता लिखूँ,
लेकिन मजबूरी है
अपने सारे बच्चे हड़ताली मजदूर की तरह
मुझे घेरे हुए हैं और जिद कर रहे हैं
अपनी जरुरत की चीजों के लिए
चींख रहे, हो, हल्ला कर रहे हैं।
मेरा गुस्सा परशुराम नहीं हो जाय।
मुझे तुम्हारी कही बातें,
याद आने लगती है-
तुमने कहा था मेरे दोस्त !
कि कविता अध्ययन, चिन्तन-
और साधना से पुष्ट होती है।
और मैं धड़फड़ा कर
शीघ्रता से निकाल लेता हूँ अपनी कलम
तेजी से लिखने के लिए।
लेकिन तभी फटी हुई साड़ी में लिपटी
पपड़ियाये ओठों पर जी फेरती हुई
मेरी धर्मपत्नी आ जाती है।
कहती है, बच्चे भूखे हैं,
गेहूँ नहीं है
बच्चों से मुझे क्या नुचवाते हो,
मेरा क्या अपराध है ?
मुझे मार कर तुम्हें क्या मिलेगा ?
मेरे लिए मरने-जीने वाली की बात सुनकर
अब मैं राशन की दूकान पर आया हूँ ,
लंबी ‘लाईन’ लगाये खड़े हैं लोग।
तभी मालूम हेाता है-
गेहूँ नहीं है, किरासनतेल खत्म हो गया।
बगल में खड़ा किसना गाली बकता है
‘‘साले सभी दो नम्बर का काम करते हैं
ऊपर ही ऊपर बेच लेते हैं।’’
और मेरे मनझमान चेहरे पर
जेठ की पछिया हवा इस तरह गुजर जाती है
जैसे टूटी हुई डाल को तोड़ती हुई आंधी
अब तुम्हीं बताओ, मेरे दोस्त !
कविता कहाँ से आती है ?
कविता रोटी नहीं दे सकती
रोटी ही कविता देती है।