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कविता-5 / शैल कुमारी
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					ग़लती कहाँ पर है 
यह पकड़ पाना बहुत मुश्किल है 
ग़लत आदमी भी अपने लिए ठीक होता है 
मन ने जो बाँध रखे हैं अनुबंध 
कपड़ों से, बर्तनों से, घर से 
और व्यक्तियों से 
जो आदमी को बैल बना देते हैं 
और तोड़ने नहीं देते अंधी अर्गलाओं को 
तुम्हीं बताओ, यह शासन 
कौन-सा न्याय लिए होता है 
अपने से बाहर 
और बाहर से भीतर 
बहुत से जोड़-तोड़ हैं 
चीज़ें कब धीरे-धीरे अपने साए बदल लेती हैं 
कौन-से मोड़ पर वनपाखी उड़ जाता है 
इसका भी तो पता नहीं होता है 
कहाँ हैं वे लोग 
जो ग़लत और सही में फ़र्क़ करते हैं 
कहाँ हैं वे शासक (अधिष्ठाता) 
जो ग़लती को ही जीवन मानते हैं 
इतिहास साक्षी है 
घटनाएँ गवाह है 
हर ग़लती को 
एक जुर्म कहा जाता है।
	
	