कविता तुम सार्थक रहो / नंद चतुर्वेदी
हाहाकार करते समय के पास
दुःख का पेड़ खड़ा है
वहीं से तोड़ता हूँ तुम्हें देता हूँ
सारे कसैले, कड़वे
कैंसर की तरह जीभ, तालू, कण्ठ
वक्ष, नाभि, पूरा रक्त, पूरी त्वचा को
आग की तरह जलाने वाला फल
कितना डर लगने लगा है
यह कहते
लो यहाँ बैठो इस सघन पेड़ की छाया में
चिन्ता रहित रहने दो मन
गिरने दो पहाड़ों पर मूसलाधार पानी
नहीं, नहीं यह कौन कहेगा
मर्द दिन भर हिसाब लगाता है
कौड़ी-कौड़ी का
और बूँद-बूँद तेल के लिए तरसता है
लड़का पिता को बेहिसाब गालियाँ देता है
लड़की दाँतों के बीच ज़िन्दगी की रेत पीसती है
सत्ता की कुतिया मक्खियों से घिरी है
फाइलों में उसकी लटकती दुम पर
शोधकर्ता, मीमांसक, तत्ववेत्ता, दार्शनिक
कवि विमुग्ध-मूर्छित हैं
इस देश में-हमारे लक्ष्मी-प्रिस देश में
चप्पा-चप्पा भूमि व्यवस्था के दलालों ने
अपनी जीभ के नीचे रख ली है
राज-सिंहासन पर बैठे वे
हमें बगावत के लिए घासलेट देते हैं
सिपाही को बन्दूक
लम्पटों को बोलने की जगह
फसलों की गंध के लिए
तरसते घूमते हैं लोग
नदियों में अंधाधुंध पानी
ज़िन्दगी के लिए कोई ज़गह नहीं छोड़ता
आरामदेह कुर्सियों के नीचे
अफसरों का जूता और जनता का भाग्य है
बाजार के बीचोंबीच मृत्यु-रथ खड़ा है
हर दुर्घटना के लिए उनके पास तर्क है
हर हिमपात में वे सुरक्षित हैं
सारे नरक दूसरों के लिए हैं
मेरी कविता ऐसे खिन्न निष्फल समय में
इस अंधकार के ठिठके हादसे के इर्द-गिर्द
एक गर्म शब्द, ईंट, पत्थर
किसी भी तरह रहो
यह त्वचा बचाने का समय है
अलंकरण का नहीं
मेरी कविता ! ऐसे समय जब
आदमी असहाय हो
तुम सार्थक रहो, शस्त्र रहो।