कवि / प्रीति 'अज्ञात'
दिल के दो टुकड़े होते ही
नहीं फूटने लगती
शब्दों की अविरल धारा
और न ही प्रेम के दो छंद
लिखते ही बन सका कवि कोई
जियो एक कायरों-सी ज़िन्दगी चुपचाप
मत करो प्रतिशोध किसी बात का
घुटते रहो भीतर तक
समेटो अंतर्मन में हर पीड़ा
जीवन के सुन्दर स्वप्न को
तार-तार कर
भिगो डालो
पकते अहसासों की कलम से,
पुरानी डायरी के
चुनिंदा वाहियात पन्ने
फिर रोते हुए छुपा लो उन्हें
दुनिया की नज़र से
हाय! चोट न पहुंचे
किसी के ह्रदय को
थक जाओगे जिस दिन
सबको सँभालते हुए
उतार फेंकोगे 'महात्मा' का चोला
खिसिया जाओगे अपनी ही
निरर्थक परिभाषाओं से
चीखोगे-चिल्लाओगे
कहीं कोने में दुबककर
थोड़े आँसू भी बहाओगे
ठीक तब ही अचानक
टूटेगा सब्र का बाँध
खिंचेगी हर शिरा-धमनी
छटपटायेंगी वर्षों से ज़ब्त
आलसी माँस-पेशियाँ भीं
भींचोगे मुट्ठी अपनी
फेंक आओगे उठाकर
दुनिया के सारे बेहूदा
नियम-कानून
भरेगा साहस रगों में
न होगा मृत्यु-भय कहीं
एन उसी वक़्त
चीखते हुए बाहर आएगा
तुम्हारे अंदर का कवि