कवि की होती है भ्रामक मृत्यु / प्रांजलि अवस्थी
सो गया है वह
जो लिखता था
काँपती उंगलियों के पोरों पर
कभी प्रेम, कभी विरह तो
कभी वेदना को तराशते हुये
हर्फों में उतार देता था,
क्यों कि उस वक्त वह समझता था कि
शब्दों की आकृतियाँ कभी धूमिल नहीं पड़तीं
उनके अंदर का सत् यानी यथार्थ कभी सूखता नहीं
जो अनकहा है अस्पष्ट है
वो सब पन्नों पर स्वाभाविक और सहज रूप में है
निष्कंटक निर्भीक और निश्चल
निर्वसन भी वह उतना ही सुंदर है
जितना सृष्टि का नैसर्गिक सौंदर्य
नहीं जानता था कि उंगलियों का कम्पन
उसकी विद्वता पर उसकी सोच पर प्रश्नचिन्ह है
शब्दों पर मौन की आखिरी कलम चलाते हुये
शब्दों पर उठाये प्रश्नों को
उत्तरों की दिशा से अवगत कराते
ऊँघते ऊँघते आखिर वह कवि,
वो रचना कार सो गया ...
और इस तरह
ये शाब्दिक मौन उस रचनाकार की भ्रामक मृत्यु साबित हुई