कवि से / शिवदेव शर्मा 'पथिक'
कवि! कविता के पृष्ठों पर तुम एक नया अध्याय जोड़ दो,
ला न सके यदि नई प्रगति तो क़लम तोड़ दो, क़लम छोड़ दो।
गढ़ों न ऐसी कला कि जिससे पन्ने भर जाते हैं,
झूठा वह अभियान कि जिसमें पाँव उखड़ जाते हैं!
झूठे हैं वे गीत कि जिसमें भरी वासना मन की,
बाजारों के बीच नहीं बिकती कविता जीवन की।
आज विश्व गा रहा भूलकर नकली कविता, गाना,
कलाकार! तुमको होगा अब आगे पाँव बढ़ाना!
नई सड़क के मजदूरों की कविता वाणी होगी,
घास फूस की झोपड़ियों में सर्जन कहानी होगी।
गीत न केवल विकल विश्व को, इसे चाहिए नारा,
लहर ज्वार में डूबा मानव माँगे आज किनारा।
देख कला की प्यासी धरती पानी माँग रही है,
नए सर्जन की नई प्रेरणा सीमा लाँघ रही है।
एक नई पीढ़ी का अब निर्माण पनपनेवाला,
नई डगर जो बना सके वह कवि युग का मतवाला!
जन के अंतर्मन को छुए, चूमे कला वही है,
नई लीक के लिए चले जो, सचमुच चला वही है!