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कहने की बात / अनिता भारती
Kavita Kosh से
कितनी अजीब बात है कि
जब हम सोचने लगते है
सिद्धांत केवल
कहने की बात है
चलने की नहीं
हम सत्य न्याय समता
लिख देना चाहते हैं किताबों में
होता है वह हमारे
भाषण का प्रिय विषय
पर उसे नहीं अपनाना
चाहते जीवन में
हम बार-बार कसम
खाते है अपने आदर्शों की
देते हैं दुहाई उनकी
भीड़ देख जोश
उमड़ आता है हमारा
जय भीम के नारों से
आँख भर आती है हमारी
गला अवरुद्ध हो जाता है
फफक कर रो उठते हैं हम
महसूस कर दुख तकलीफ
जो झेली थी भीम ने उस समय
पर हम आँख मीच लेते
उससे
जो अन्याय हमारी आँखों के
नीचे घट रहा है।