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कहाँ थे साथी / काजल भलोटिया
Kavita Kosh से
जब उम्मीदें दम तोड़ रही थी
बेसुध बेख़बर-सी ज़िन्दगी में
पल पल टूट रहा था कुछ
तुम कहाँ थे साथी!
जब ढल चुकी सूरज की राख ने
बड़ी बेहयाई से
मेरे चेहरे पर उदासी मल दी और
गहराती रही थी सिलवटें
मेरे बोझिल माथे की ललाट पर
तब तुम कहाँ थे साथी!
जब अलग अलग मौसमों की
मार ख़ाकर भी
कड़ी धूप में पकती रही थी कोई कविता
गेहूँ की बाली सी
उस वक़्त भी तुम कहाँ थे साथी!
जानती हूँ समझती हूँ
तुम क्यूँ नहीं आये
ठीक ही हुआ जो नहीं आये
आते तो नहीं आती वह धीरजता मुझमें
जो अब आ गई है
न ही आता करना वह प्रेम
जो दूर आसमान में उड़ती हुई चिड़िया को
विलुप्त होते देखकर आता है।
क्योंकि,
तुम्हारा साथ होना ज़रूरी नहीं
तुम्हारा होना बहुत ज़रूरी है
मेरे होने के लिये!