भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कहीं गड़बड़ है / राम सेंगर
Kavita Kosh से
कर्मयोगी
कहाँ जाने रम गए हैं ।
धुन्धलका-सा
तना रहता
मिचमिची में ।
भावविह्वल
कहन की
असहज खिंची में ।
कहीं गड़बड़ है
समझ में आ रहा है
भ्रान्त लक्ष्यों पर पहुँच कर जम गए हैं ।
लाँघकर ख़ुद को
निकलना
खेल जाना ।
आत्मश्लाघा में
तमक
उँगली नचाना ।
उड़ानें विश्वास की
अधबीच टूटीं
दिखावे को नाज़ के नख़रे नए हैं ।
हवाख़ोरी में
हवा का
साथ है गो ।
तरहदारी से
दिशा
खुलती न रो-धो ।
नाम गुम है
भनक से लेकर ख़बर तक
कक्ष खाली है, विषय ही कम गए हैं ।