भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
क़िस्सा पुराना है / रामजी यादव
Kavita Kosh से
लाखों जंगलों की राख़ के कणों की संख्या से भी ज़्यादा वर्षों पहले
तपते हुए अग्निपिंडों से पिघलते लावों के ठंडा होने से भी पहले
उससे भी पहले जब बून्दें बनना शुरू हुई होंगी पहली
पृथ्वी ने आकार लेना शुरू किया होगा उससे भी पहले
मैंने चाहा होगा तुम्हें इतनी ही शिद्दत से
और तुम न मिली होगी तो बदल गया होऊँगा कोयले में
सहस्राब्दियों तक दबा रहा होऊँगा धरती की गर्भ में
और बाहर निकाला गया होऊँगा फिर से धधकने के लिए
एक मनुष्य एक मनुष्य के लिए कोयले से भी तेज़ धधकता है !