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काफिला आवाज का / देवेन्द्र शर्मा `इन्द्र'
Kavita Kosh से
राह में आँखें बिछाये
किसलिए बैठा
अब यहाँ कोई न आयेगा.
धूप का रथ
दूर आगे बढ़ गया
सिर्फ पहियों की
लकीरें रह गयी
थी इमारत एक
सागर तीर पर
नींव, छत, दीवार जिसकी
ढह गयी.
पश्चिमी आकाश में
उड़ते पखेरु-सा
सूर्य थककर डूब जायेगा.
नील जल पर
एक टूटी नाव-सी
लाश लावारिस दिवस की
तिर रही
थम गया है
काफिला आवाज का
चुप्पियों पर
दीपवेला घिर रही.
अश्रुकण सा रात भर अब
व्योम-पलकों में
शुक्रतारा झिलमिलायेगा
पारिजातों की
विलम्बित छाँव में
रोकती पलभर
सुरभि की किन्नरी
पर नियति में
सार्थवाहों के लिखी
रेत के पदचिह्न-सी
यायावरी
सब जहाँ अपनी सुनाते हों
विजय-गाथा
तू व्यथा किसको सुनायेगा