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काम / सिद्धेश्वर सिंह

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जब हम कुछ भी नहीं कर रहे होते हैं
तब भी कर रहे होते हैं एक अनिवार्य काम ।

बिस्तर पर
जब लेटे होते हैं निश्चेष्ट श्लथ सुप्त शान्त
तब भी
चौबीस घण्टे में पूरी कर आते हैं
पच्चीस लाख किलोमीटर की यात्रा ।
पृथ्वी करती रहती है अपना काम
करती रहती है सूर्य की प्रदक्षिणा
और उसी के साथ पीछे छूटते जाते हैं
दूरी दर्शने वाले पच्चीस लाख मील के पत्थर ।

यह लगभग नई जानकारी थी मेरे लिए
जो डा० भटनागर ने यूँ ही दी थी आपसी वार्तालाप में
उन्हें पता है पृथ्वी और उस पर सवार
जीवधारियों के जीवन का रहस्य
तभी तो डाक्साब के चेहरे पर खिली रहती है
सब कुछ जान लेने के बाद खिली रहने वाली मुस्कान ।

आशय शायद यह कि
कुछ न करना भी कुछ करना है
एक यात्रा है जो चलती रहती है अविराम
अब मैं ख़ुश हूँ
दायित्व बोझ से हो गया हूँ लगभग निर्भार
कि कुछ न करते हुए भी
किए जा रहा हूँ कुछ काम
लोभ-लिप्सा व लालच के लालित्य में
ऊभ-चूभ करती इस पृथ्वी पर
निश्चेष्ट श्लथ सुप्त शान्त
बस आ-जा रही है साँस ।

फिर भी संशय है
अपनी हर हरकत पर
अपने हर काम पर
हर निर्णय पर
निरर्थकता के सौरमंडल में
हस्तक्षेप विहीन परिपथ पर
बस किए जा रहा हूँ प्रदक्षिणा-परिक्रमा चुपचाप ।

एक बार नब्ज़ तो देख लो डाक्साब !