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काम की ढूँढ़ में / लीलाधर जगूड़ी

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काम की ढूँढ़ में भटकते जीवन को
सपना देखने की वही एक कोठरी दिखती है
दूर कहीं
जहाँ रहना नहीं काम की ढूँढ़ में निकलना
ज़्यादा होता है

पुराने कपड़े टँगे हैं भावी विकल्प की तरह
फटे-पुराने दो जूते एक दूसरे पर पड़े हैं
संघर्ष की मुद्रा में

विरोध के नाम पर एक दूसरे से
मुँह फेरे पड़ी हैं घिसी हुई चप्पलें

गुड़े-मुड़े बिस्तर पर कभी ठीक से सो ही नहीं पाता
एक वंचित और चिंतित जीवन

इस कोठरी, इस बिस्तर और चीज़ों को छोड़कर
काव्य-भाषा भी बहुत दूर जा नहीं सकती
इस देश-काल में कुछ न होने के विरुद्ध
जो कुछ नहीं होना है
यहाँ रहने वाले को निकलते-निकलते भी
उसी का इंतज़ार है।