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कारपोरेट गेम / उत्पल डेका / दिनकर कुमार
Kavita Kosh से
खोपड़ी के अन्दर एक पृथ्वी
चश्मे के बग़ैर भी नज़र आती है
हैरतअंगेज पृथ्वी
जो खेल हम खेल रहे थे
वह ख़त्म नहीं हुआ था
बड़े अक्षरों में लिखे विज्ञापन के पीछे
रहते हैं
छल के आँसू
इन्वेस्टमेण्ट में जीवन
लहू चूसना हमारा धर्म
शोषण और शासक की
हड्डी में उगे नंगे बच्चे
भूख से चीख़ते हैं
गैरों के मुँह से निवाला छीनकर
सुखी होने का खेल रोचक है
कुछ पा जाने का सुख मिलता है इसमें !
मूल असमिया भाषा से अनुवाद : दिनकर कुमार