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काली लट / बृजेन्द्र कुमार नेगी
Kavita Kosh से
घैणी काली-काली लटुलि
घुंघरलि, छड़छड़ी लटुलि
कटीं-छटीं, बिखरीं लटुलि
उड़र्दि इनै-उनै लटुलि ।
कभी छै ये लड़बड़ी भिटुली
बन्धेदि छै जब एक धोंपेली
बणिदी छै कभी द्वी चुंफुली
दैणी-बैं द्वी भैंणी-सहेली।
फूंदा-रिबन बांधी-सजै कि
खूब हिल्दी छै बल खैकि
अब हर बंधन मुक्त ह्वेकि
उड़णी छै उन्मुक्त निझर्कि।
कटेन्दि छै, अब छटेन्दि छै
रोज नै-नै रूप सजेन्दि छै
बन-बनिका रंग रंगाकि
लट-लट बिखरेन्दि छै।
जन्न-जन्न बंधन मुक्त हून्द गै
सयुंक्त परिवार लुप्त हून्द गै
जन्न-जन्न त्यारा बट खुल्द गै
घर-परिवार खंड-खंड हून्द गै।