भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
काल आरोॅ प्यार / नवीन निकुंज
Kavita Kosh से
काल रोॅ पीछू-पीछू हम्में
या काले
हमरोॅ पीछू-पीछू
कौनें केकरा खींचै?
कौंनें केकरा रोकै?
हम्मूं अकेला
कालो अकेला
मतरकि उ$
कहाँ छै अकेलोॅ
लुम्बित होतें रहै छै काल
पर्वत
खाई
समन्दर सेॅ
तबेॅ केना केॅ छै अकेलोॅ?
निर्मोही छै उ$
जे चलै बस
आपनोॅ डगर पर
हम्मूं कहाँ अकेलोॅ
बहै छै केकरो याद
मनोॅ में
कालोॅ के गति सेॅ ज्यादा
प्यार के ज्वार
उफनावै छै
जहाँ
काल पड़ी जाय छै
एकदम निस्तेज
तबेॅ मन
कृष्ण बनी केॅ
कहै छै काल सेॅ
आबें काल
हमरोॅ पीछू-पीछू।