काल का ग्रासनमन / साधना जोशी
वाह! रे काल,
तुम कितने भूखे हो गये कि, 
इतना बड़ा ग्रास बना के,
खा गया क्षणभर में ।
न दया, न करुणा, बची,
तेरे हृदय में ।
मासूम बच्चों ने अभी-अभी तो, 
चलना सीखा था, इस धरा पर । 
उनके नन्हें कदमों में अभी, 
दृढता भी नहीं आयी थी ।
तुमने धरा से उठा लिया, 
हाय! वो तड़फन न भेद पायी, 
तुम्हारे कठोर हृदय को,
जिसमें चीख-पुकार थी, 
करुणा वेदना की ।
काष कि तुम एक बार, 
जीवन दान देकर, देख लेते। 
कितनों की उम्मीदों का,े 
टूटने से बचा लेते ।
और लोग कहते कि,
हमे जीवन दान दिया है काल ने,
माना कि मानव भूल जाता, 
तेरे उपकार को ......................... ।
फिर भी तुमने एक उपहार, 
दिया तो होता, अपने प्रिय जन को ।
वो कौन सा प्रमाण है तेरा,
जिसमें हजारों को,
बुलावा भेज दिया,
तुमने क्षणभर में ।
तुम जबाव दोगे न,
जब एक बच्चा, 
अपने माँ  बाप का पता पूछेगा ।
एक माँ का सूना आंचल उड़ेगा, 
और तड़फकर, 
तुमसे कारण पूछेगा,
अपने सूने पन का । 
हे प्रलय के पुजारी, 
तुम उन खेत खत्मिहानों को,
बता देना कि कहाँ गये,
वे लोग, जो लौटने के लिए
गये थे और लौट न सके ।
तुम उनके द्वार तक, 
उन घरों के ताले खोलने चले आना ।
जो खुषियों के साथ खुलने थे, 
कुछ पलों के बाद,
हाय रे दास्ता,
कौन सी कलम न थर-थरायी,
कम्प-कम्पायी होगी, 
इन षब्दों को उगलते हुये ।
फिर भी जबाव खोजती है,
हर कलम हर कागज पर लिखी एक कहानी,
कहां गये वे लोग,
जो चले थे कल अपने आषियानों से, 
न लौट सके आषियानों तक ।
 
	
	

