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काव्यकामिनी (सॉनेट) / अनिमा दास

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व्यतीत होता है प्रकाश... तत्पश्चात् अंधकार
एक गहन श्वास लिये एक पक्ष होता व्यतीत
व्यतीत होता है कष्ट..कष्ट में मग्न स्मृति अपार
नहीं आता द्वार पर....न प्रश्न...न उत्तर न अतीत।

शकुंतला की विरह वाटिका में अब होते हैं कंटक
स्वर्गपथ की अग्नि में दग्ध होती...दुष्यंत की यामा
कहाँ रही अब मधुक्षरा की सुगंध में प्रेम की गमक!!
प्रतिश्रुति का वह क्षण...अब है वृंतरहित पुष्प- सा।

अप्सरा सी मैं भी होती..शृंगार का रस बह जाता
बह जाती अनंतता में आयु..संग मोहिनी भंगिमा
ऋषि-नृप के हृदय कुंज में कदम्ब ही पुष्पित होता
कादम्बरी सी मैं कुहुकती..घन-वन में होती मंजिमा ।
 
तरंगिणी तीर की तरणी सी किस दिशा में बह जाऊँ
किंवदंती सी कविता में..मैं काव्यकामिनी सी रह जाऊँ।
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