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काश-1 / विनोद शर्मा
Kavita Kosh से
वो हाथ जिसके स्पर्श से
तुम्हरे शरीर में असंख्य फूल खिल जाते थे
अब कांपने लगा है
वे आंखें जिनमें तुम्हें देखकर
असंख्य इन्द्रधनुष प्रतिबिंबित होने लगते थे
अब दर्पण में स्वयं को भी नहीं देख पातीं
वो स्मृति जिसमें बस कर तुमने
मुझे सम्मोहित किया था
अब धुंधला गई है और तुम्हारा चेहरा भी
अब दर्शनीय नहीं रहा
एक चुम्बक था तुम्हरी देह में
एक कस्तूरी थी
जिन्हें चुराकर ले जा चुका है समय
क्या प्यार का अमृत पीकर भी
होना पड़ता है मनुष्य को
जरा और मृत्यु का शिकार?
क्या वह अमृत नहीं था, तो फिर क्या था?
शरीर को गलते सड़ते देखना
सत्य भले हो, आनन्ददायक नहीं
क्या लौट नहीं सकते प्यार के वे क्षण?
काश तभी मृत्यु हो जाती हमारी
तो ये दिन तो नहीं देखना पड़ता।