कितनी जल्दी / विमल राजस्थानी
कितनी जल्दी शाम हो गयी !
तीर-तीर लहरों को गिनते सारी उमर तमाम हो गयी
कितनी जल्दी शाम हो गयी !
बीत चली लो सकल उमरिया
जीवन के नखरों को ढोते
अपने पर ही हँसते, अपने
ही आँसू का हार पिरोते
जग को कभी नहीं दुतकारा, अपने से ही जीता-हारा
फिर भी मेरी रामकहानी दुनिया में बदनाम हो गयी
प्यार-प्रीति की भूख लगी थी
मधुर मिलन की प्यास जगी थी
पाप नहीं था, फिर भी चैराहे-
पर मेरी लाश टँगी थी।
मैंने जब-जब दीप जलाये, फूँक-फँूक कर गये बुझाये
कुपित विधाता हुआ, निर्दयी नियति रूठकर, वाम हो गयी
जाना कहाँ, कहाँ से आया
छाया तक अज्ञात रही है
साथी पतझर रहा, संगिनी-
आँसू की बरसात रही है
मैंने नहीं गगन चाहा था, मैंने नहीं सितारे चाहे
मिट्टी हूँ, मिट्टी से जुड़ने की कोशिश नाकाम हो गयी
मेरे गीतों के जादू ने
बाँध लिये थे मन लाखों के
तेवर झेले गये नहीं जब
गगन नापती इन पाँखों के
डाही राही ठिठके, चैंके, खूब चले झंझा के झोंके
हँसकर मैं सपनों में खोया, उनकी नींद हराम हो गयी
फली साधना जनम-जनम की
पायी तब झाँकी पूनम की
अगरू-धूम-सा हृदय जला जब
जीवन की फुलवारी गमकी
मेरे स्वर पर झरे जवाहर, मणि-मुक्ता बिखरे अंजलि भर
उनकी तुकबंदी की कीमत घटकर एक छदाम हो गयी
कितनी जल्दी शाम हो गयी !