भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

किसको कहाँ बताने जाएँ / नईम

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

किसको कहाँ बताने जाएँ
हम अपनी काली करतूतें।
अपने धैर्य, भीरुता अपनी,
अपने छल-बलकैसे कूतें?

मचा रखा है क्यों विनाश का
महानृत्य परनों तोड़ों से,
कौन बचा रह सका आज तक
कालदेवता के कोड़ांे से,

अंतस को फूँका कपास-सा
अब क्या कातें, भाँजें सूतें?

सिक्ख, इसाई, हिंदू-मुस्लिम होना
क्यों हो गया लाजिमी?
कैसी नई ज़रूरत है ये?
गैरज़रूरी हुआ आदमी।

छुआछूत मिट सकी न जी से
गहरा गईं और नव छूतें।

निगमागमसम्मत दर्शन का
हम पर कोई प्रभाव नहीं है,
गगन, गुफा या पातालों में
छुपना कोई बचाव नहीं है।

भ्रष्ट तपस्वी-से घूरों पर,
खड़े हुए हम लगा भभूतें।