किसी ने मेरा उड़ता कबूतर मारा / नेहा नरुका
किसी ने मेरा उड़ता कबूतर मारा
भाभी पहली बार हमारे घर आईं तो उन्होंने यही गाना गाया
उस दिन का दिन है और आज का दिन है
यह गाना बस गया मेरे भीतर
मैंने कितनी बार इस गाने में जोड़ा
किसी ने मेरे सपनों पर डाका डाला
मेरी बचपन की आदत थी
जब गाने का कोई अन्तरा भूल जाती थी
तो उसमें अपना अन्तरा डाल लेती थी
यह तो बाद में पता चला, ख़ाली शब्द कहाँ डालती थी, भाव भी तो डाल देती थी अपने
भाभी जब नई-नई आईं, तब कबूतरी थीं
मैं भी जब नई-नई गई, तब कबूतरी थी
फिर एक दिन ऐसा हुआ, हम दोनों के कबूतर मार दिए गए
जिसने हमारे कबूतर मारे
वह हत्यारा कोई और नहीं था, वह वही था, जिसके साथ हमने कबूतर उड़ाने के अरमान पाले थे
उस दिन भाभी ने आख़िरी अन्तरे में यह भी गाया था
किसी ने मेरी ननदी पर डोरे डाले
उस दिन मुझे ज़ोर की हँसी आई थी
मुझ पर कौन डोरे डालेगा, भाभी !
पर अब नहीं आती,
उन डोरों से घायल जो हुई पड़ी हूँ ।
सारे धूर्त, सारे कपटी, सारे खल, सारे कामी
कबूतरियों के ही छोर से क्यों बाँध दिए गए, भाभी ! ?
बोलो न, तुमने उस दिन यह गाना ही क्यों गाया ?
कोई दूसरा भी तो गा सकती थीं
इनकार भी तो कर सकती थीं
गाना गाने से
पर तुम कैसे करतीं इनकार
उस दिन तुम्हें भी कहाँ पता था, एक दिन सचमुच तुम्हारे ही सामने तुम्हारा कबूतर मारा जाएगा
और तुम कुछ नहीं कर पाओगी
ख़ून से लथपथ कबूतर, जब आसमान से आँगन में गिरा
तो मैंने भी उसे देखा ही था मरते ... ।