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किसी मौन नगर चल / पद्माकर शर्मा 'मैथिल'

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कोलाहल नोच रहा भावों के पर
गीत विहग उड़ किसी मौन नगर चल॥

अखबारी सड़कों पर अफ़वाहें फैली हैं
पहियों के घूम रहे पाँव हैं
विद्युत के ज्योति सर्प दीपों को डँसते हैं
शहरों में गल रहे गाँव हैं
बढ़ रहे राज मार्ग विक्षित अँचल
गीत विहग उड़ किसी मौन नगर चल॥

बेमन ही लोगों से बतियाते लोग हैं
ओढ़े हैं अभिनय का आवरण
कौफ़ी के प्यालों में चिंतन को घोलते
पीते सिगरेटी वातावरण
चर्चित अस्तित्ववाद विगलित पल-पल
गीत विहग उड़ किसी मौन नगर चल॥

यंत्रों की भीड़ में खोया-सा आदमी
जड़ता कि स्थितियों को ढो रहा
कुंठा कि धरती पर शंका के हाथों से
मिमियाते शब्दों को बो रहा
जीवन को सेंध रहा मेधावी छल
गीत विहग उड़ किसी मौन नगर चल॥

बौने व्यक्तित्वों में अणु-बम के बिम्ब लिए
गहराया बौध्धिक परिवेश है
आशंकित प्राणों की बारूदी बगिया में
प्रलयंकर ताण्डवरत शेष है
विषगर्भित कर्मों के विकलांगी फल
गीत विहग उड़ किसी मौन नगर चल॥