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कुंज लीला / सुजान-रसखान
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सवैया
कुंजगली मैं अली निकसी तहाँ साँकरे ढोटा कियौ भटभेरो।
माई री वा मुख की मुसकान गयौ मन बूढ़ि फिरै नहिं फेरो।।
डोरि लियौ दृग चोरि लियौ चित डार्यौ है प्रेम को फंद घनेरो।
कैसा करौं अब क्यों निकसों रसखानि पर्यौ तन रूप को घेरो।।97।।
सोरठा
देख्यौ रूप अपार, मोहन सुंदर स्याम को।
वह ब्रजराज कुमार, हिय जिय नैननि में बस्यौ।।98।।