भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कुंडलियाँ / धीरज पंडित
Kavita Kosh से
‘राही’ में कि बात छै ई जानै कोय-कोय
चलते फिरते लोग सब मन मेॅ राखै गोॅय
मन मेॅ राखै गोॅय, कोय कुछ नय बताबै
जे हिनका अपनाबै, हुनका ई मन भाबै
कहै छै ‘धीरज’ नीर भरि आँखी रो अपराधी
नय जानोॅ मंजिल अगू केना भुललै ‘राही’।
‘बगुला’ के ई चोंच छै निर्मल स्वच्छ समान
तन टा उजला खास कि थोड़ा सन देहु ध्यान
थोड़ा सन देहु ध्यान कि मछरी भागे नय पारै
टक-टक ध्यान के चलते ही, पानी मुँह खंगारै
‘धीरज’ ई अपवाद से केना बनतै सबला
बगुला-बगुला नै रहलै, कहै बात ई ‘बगुला’।
बचपन भेलै मलिन, जवानी भेलै कुलीन
डुबलै जखनी सुरज, तवे भेलै यकीन
तवे भेलै यकीन, अरे बाप रे बाप
थोड़े सन स्वारथ लेली कैन्हेॅ करलोॅ पाप
धीरज तेॅ सबे छुटलै, बीतलै जखनी पचपन
भेद-भाव के याद दिलाबै, याद आबै छै बचपन।