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कुछ क्षणिकाएँ / धनंजय सिंह
Kavita Kosh से
दायित्व
पंखों में
बांधकर पहाड़
उड़ने को कह दिया गया।
ध्वजारोहण
शौर्य
शांति
और समृध्दि को
काले पहिए से बांधकर
बाँस पर
लटका दिया गया है मेरे देश में!
सूर्यास्त
दीक्षान्त समारोह में
काला चोगा पहनकर
सूरज
नौकरी की खोज में चला
बदलाव
जब कभी कोई विस्तार
मेरी मुट्ठियों में बंद हुआ
एक तेज़ धार वाले ब्लेड ने
अँगुलियाँ लहू-लुहान कर दीं
मेरा छोटा
ऐसे कई ब्लेड
खेल-खेल में चबाकर निगल जाता था
और अब
मैं इन ब्लेडों को
अपनी नसों में घूमते महसूस करता हूँ
शायद
अब वे मेरे
श्वेत और लाल
रक्त-कणों में बदल गए हैं
चेहरे
भीड़ को
अपना चेहरा सौंपकर
मैंने पाया-
वह गूंगा हो गया है
और मुस्कुराती हुई भीड़
अपने हाथों से
‘मुर्दाबाद’ कहने में जुटी है