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कुछ चीज़ें / विपिन चौधरी
Kavita Kosh से
कुछ चीज़ें
इतनी बेकार हो जाती हैं
वे अपने आप को घसीटती
चली जाती है ।
कई चीज़ें
इतनी नाज़ुक
होती हैं
अपने आप को फिसलते
हुए देखती हैं लगातार ।
कुछ चीज़ों का
गिर का बिखर जाना लगभग तय है
भटक जाना पूरी तरह निश्चित है
फिर भी वे विखंडन के
आख़िरी कोने तक चहकती हैं ।
मनुष्यता के बेहद
नज़दीक
जाकर लौट जाती है
कई चीज़ें।
कई चीज़ें
धरती आसमान,
जात-पात की
ऊँच-नीच
के बीच अपना वजूद
ढूँढ़ती हुई दम तोड़ देती हैं ।
कुछ चीज़ें बची रहती हैं
घिसते, छीलते रहने के बावजूद
जैसे की बची रहने के बावजूद
अँधेरे कोनों में ।