कुछ नहीं कहूंगी / इन्दिरा प्रसाई
कुछ नहीं कहूंगी
जाने अनजाने में
कुछ हुआ होगा
तुम्हें मालूम हो ना हो
मुझे तो पता ही था
दिलकी कोमल कपोलों को
तुम ने मरोड़ा होगा
कुछ तो हुआ ही होगा
जो नहीं होना था
वही हुआ होगा ।
धूप नहीं थी तो क्या हुआ
हवा में
धुवाँ की गन्ध
बेचैनी से उमड़ रही थी
मुझे पता था
आग वहाँ जला ही होगा ।
जैसे भी हो तुम्हारे इर्दगिर्द
रोशनी हुयी होगी
लेकिन यही सच है
तुमने मेरी झोली में
सिर्फ और सिर्फ
अन्धकार ही डाला होगा ।
मुझे कुछ नहीं कहना है
जो कहना था
मैंने कह डाला
मौनता में
शून्यता को
घायल दिल की उफानों से
सब कह डाला ।
अंकमाल कर कर के
गर्म आगोश की
ठंड से सिकुडते हुए
जो नहीं कहना था
वह भी
तुम्हारे ही कानों में
मैंने कह डाला था ।
मुझे पता है
मेरी बातों से
तड़पती रातों से
तुम्हें तो कोई
फर्क ही नहीं पड़ा होगा ।
विवश थी
दिल की ही तरफ से
इसीलिए
घायल दिल लेकर ही सही
लेकिन मंै फिर भी
तुम्हारी ही राह ताकती रही
रातभर रोती रही
तुम्हारी शिकायत
चाँदनी से करती रही
पर चाँद भी मेरी ही तरह
विवश था
तभी तो
वह भी सिर्फ
मेरी तरफ ही देखकर देखकर
सिसकता रहा !
अभी छोड़ दो
क्या रखा है इन बातों में
मुझे कुछ नहीं कहना है
बस चुप ही रहना है !!