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कुण्डलिया-2 / राजपाल सिंह गुलिया

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6.
सावन फागुन हो भले, भले रहे मधुमास,
प्रसन्न रहता व्यक्ति जब, हों दो पैसे पास ।
हों दो पैसे पास, भोगता सुख-सुविधाएँ,
खाली गर हो जेब, सभी रुत पीड़ जगाएँ ।
कह गुलिया कविराय, लगे ना कुछ मनभावन,
जिसे सताए भूख, रुचे कब फागुन सावन ।
7.
पहले जो ये चोर थे, हुए आज बटमार,
लूटपाट भी ले रही, नित्य नए आकार ।
नित्य नए आकार, फोन पर बजती भेरी,
पासवर्ड को पाय, लूट में करें न देरी ।
कह गुलिया कविराय, फोन के नहले दहले,
पूछें गर जो बात, बात को तोलो पहले ।
8.
सेवा ओछे की कभी, करो नहीं तुम मीत,
आदर ज़र मिलता नहीं, इनसे करके प्रीत ।
इनसे करके प्रीत, सभी बस इतना कहते,
जन हो या हो बोल, लोग ओछा ना सहते ।
कह गुलिया कविराय, उसे ना मिलती मेवा,
करता ओछी बात, करे ओछों की सेवा ।
9.
लंका तब ढहकर रही, दिया विभीषण भेद,
कौन बचाए आप जो, करे नाव में छेद ।
करे नाव में छेद, कर्मफल नहीं विचारे,
स्वयं दिखाए आग, उसे कब कौन निवारे ।
कह गुलिया कविराय, बजा जब रण का डंका,
लगी विभीषण हाथ, जली हुई स्वर्ण लंका ।
10.
सुनकर बातें आपकी, विस्मय हुआ अपार,
ठकुरसुहाती भूमिका, चाटुक उपसंहार ।
चाटुक उपसंहार, कथन में मिसरी घोली,
नहीं एक भी बात, तथ्य को लेकर बोली ।
कह गुलिया कविराय, सभी बैठे जल भुनकर,
मुखिया को भी खेद, प्रशंसा झूठी सुनकर ।