भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कुण्डलिया से प्रीत-2 / बाबा बैद्यनाथ झा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जाता हूँ प्रायः मगर, बचा नहीं वह गाँव।
मिलती है मुझको नहीं, अब बरगद की छाँव॥
अब बरगद की छाँव, नहीं हैं ताल तलैया।
गायब आज मचान और वह काली गैय्या॥
है आपस में द्वेष, जान यह मन घबड़ाता।
उजड़ रहा है गाँव, देख विस्मित हो जाता॥

आता है जग में मनुज, लेकर खाली हाथ।
मिलता है सौभाग्य से, सोलमेट का साथ॥
सोलमेट का साथ, मिले तो प्राप्त पूर्णता।
अथवा जीवन व्यर्थ, समझ लो मात्र शून्यता॥
फिर चारो पुरुषार्थ, सहज वह मानव पाता।
सोलमेट बस ब्रह्म, ध्यान में जिसके आता॥
 
बढ़ती है जब उम्र तो, अनुभव होते प्राप्त।
मगर बुढ़ापे की सनक, करती है उत्पात॥
करती है उत्पात, दुखद हालत हो जाती।
बढ़ती जब अपकीर्ति, स्वजन को बहुत सताती॥
यह है मानस-रोग, सनक जिसको भी चढ़ती।
बने रहें शालीन, उम्र जिनकी भी बढ़ती॥

होता कोई बून्द जब, तब रहता कमजोर।
बून्दें बन सागर करें, लहरों का अति शोर।
लहरों का अति शोर, एकता में ही बल है।
जो है आज उदास, उसी का सुन्दर कल है॥
रखता जो एकत्व, कभी वह धैर्य न खोता।
लेता वह जो ठान, कार्य हर संभव होता॥

आता वृद्धापन अगर, पकने लगते बाल।
इसे लाल बत्ती समझ, सुधरें हम तत्काल॥
सुधरें हम तत्काल, छोड़ दें अब मनमानी।
करें इष्ट का ध्यान, बहुत की है नादानी॥
जैसा होता कर्म, कर्म फल वैसा पाता।
मिले सकल पुरुषार्थ, सोच नर जग में आता॥

मिलता जब होता समय, करो नहीं सन्ताप।
सच्चे रिश्ते अनकहे, बनते अपने आप॥
बनते अपने आप, धैर्य है बहुत जरूरी।
प्रभु पर रख विश्वास, कामना होगी पूरी॥
माली सींचे बाग, समय पर पुष्प निकलता।
जीवनसाथी योग्य, एकदिन उसको मिलता॥

करता है जो साधना, पाता वह सुख भोग।
करे बुराई अन्य की, सदा निकम्मे लोग।
सदा निकम्मे लोग, भार पृथ्वी का बनकर।
करते हैं बकवास, रहे वे सबसे तनकर॥
गुणग्राही हर व्यक्ति, उच्च चोटी पर चढ़ता।
होता जीवन व्यर्थ, बुराई जो है करता॥

शरद चान्दनी रात में, शान्तियुक्त परिवेश।
आओ हम घूमे प्रिये, भूल सकल दुख क्लेश॥
भूल सकल दुख क्लेश, चन्द्रिका ज्ञान सिखाती।
रहता जो उद्विग्न, उसे वह राह दिखाती॥
चलें पकड़ कर हाथ, करें अभिसार कामिनी।
दुर्लभ यह संयोग, प्राप्त है शरद चान्दनी॥

हर शिक्षक जाने प्रथम, बाल मनोविज्ञान।
तब ही अपने शिष्य का, रख सकते वे ध्यान॥
रख सकते वे ध्यान, उचित पुनि देंगे शिक्षा।
प्रगति अंक के साथ, बीच हो नियत परीक्षा॥
राग-द्वेष से मुक्त, बनें जब आप परीक्षक।
शिष्यों के अनुकूल, ज्ञान बाँटें हर शिक्षक॥

देते हैं यदि अंक तो, सदा रहे यह ध्यान।
शून्य अंक कथमपि नहीं, दें हम अब श्रीमान्॥
दें हम अब श्रीमान्, गलत मूल्यांकन होता।
समझ स्वयं को शून्य, धैर्य वह अपना खोता॥
सभी आपसे छात्र, ज्ञान की दीक्षा लेते।
मान आप कर्त्तव्य, उचित प्रोत्साहन देते॥