भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कुत्तों की आज़ादी / रणजीत

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

भोंको कुत्तों, भोंको!
जी भर-भर कर भोंको!
तुम्हें भोंकने की आज़ादी
कितने भीषण संघर्षों के बाद मिली है
इस सुविधा को
चुप्पी की भट्टी में यों मत झौंको!
भोंको कुत्तों, भोंको!
अपना नया विधान बनाया है अब तुमने
और राष्ट्र को गणतंत्रात्मक प्रजातन्त्र की
संज्ञा दी है
सोच समझ कर ही तो आखिर
स्वयं तुम्हारे प्रतिनिधियों ने
इस विधान में
भाषण की आज़ादी की धारा जोड़ी है
क्योंकि तुम्हारी मूल वृत्तियों के
अति गहरे विश्लेषण के बाद
निकाला है निष्कर्ष उन्होंने:
कि रोटी, कपड़े औ' मकान के बिना
रहा जा सकता है कुछ दिन तक लेकिन
भोंके बिन
क्षण भर तक भी जिंदा रह सकना
तुम लोगों के लिए एक दम नामुमकिन है
इस नवीन अन्वेषण की गरिमा को समझो
और राष्ट्र के पावनतम विधान को
जिसने तुम्हें भोंकने की आज़ादी दी है घोको!
भोंको कुत्तों, भोंको!