कुररी के प्रति - 2 / मुकुटधर पांडेय
विहग विदेशी मिला आज तू बहुत दिनो के बाद
तुझे देखकर फिर अतीत की आई मुझको याद
किंशुक-कानन-आवेष्टित बह महानदी-तट देश
सरस इक्षु के दण्ड, धान की नव मंजरी विशेष
चट्टानों पर जल-धारा की कलकल ध्वनि अविराम,
बिजन बालुका-राशि, जहाँ तू करता था विश्राम
चक्रवाक दंपत्ति की पल-पल कैसी विकल पुकार
कारण्डव-रव कहीं कहीं कलहंस वंश उद्गार
कठिनाई से जिसे भूल पाया था हृदय अधीर
आज उसी की स्मृति उभरी क्यों अन्तस्तल को चीर?
किया न तूने बतलाने का अब तक कभी प्रयास
किस सीमा के पार रुचिर है तेरा चिर-आवास
सुना, स्वर्णमय भूमि वहाँ की मणिमय है आकाश
वहाँ न तम का नाम कहीं है, रहता सदा प्रकाश
भटक रहा तू दूर देश में कैसे यों बेहाल?
क्या अदृष्ट की विडम्बना को सकता कोई टाल
अथवा तुझको दिया किसी ने निर्वासन का दण्ड?
बता अवधि उसकी क्या, वह निरवधि और अखण्ड?
ऐसा क्या अक्षम्य किया तूने अपराध अमाप?
कथ्य रहित यह रुदन, तथ्य का अथवा है अप्रलाप?
या अभिचार हुआ कुछ, तुझ पर या कि किसी का शाप?
प्रकट हुआ यह या तेरे प्राक्तन का पाप-कलाप?
कोई सुने न सुने, सुनता कुछ अपने ही आप,
अंतरिक्ष में करता है तू क्यों अनवरत विलाप?
शरद सरोरुह खिले सरों में, फूले वन में कास
सुनकर तेरा रुदन हास मिस करते वे परिहास।
क्रौंच, कपोत, कीर करते हैं उपवन में आलाप
सुनने को अवकाश किसे है तेरा करुण विलाप?
जिसे दूर करने का संभव कोई नहीं उपाय,
निःसहाय निरुपाय, उसे तो सहना ही है हाय!
दुःख-भूल, इस दुःख की स्मृति को कर दे तू निर्मूल,
पर जो नहीं भूलने का है; सकता कैसे भूल?
मंडराता तू नभो देश में अपने पंख पसार,
मन में तेरे मंडराते हैं, रह-रह कौन विचार?
जिसके पीछे दौड़ रहा तू अनुदिन आत्म-विभोर
जाने वह कैसी छलना है, उसका ओर न छोर
ठिठक पड़ा तू देख ठगा सा सांध्य क्षितिज का राग
जगा चुका वह कभी किसी के भग्न हृदय में आग
परदेशी पक्षी, चिंता की धारा को दे मोड़
अंतर की पीड़ा को दे अब अन्तर-तर से जोड़।
प्रियतम को पहचान उसे कर अर्पण तन-मन-प्राण
उसके चरणों में हो तेरे क्रन्दन का अवसान।
सुना, उसे तू अपने पीड़ित-व्यक्ति हृदय का हाल
भटक रहा तू दूर देश में, क्यों ऐसा बेहाल?
-हिन्दी काव्य संग्रह