भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कुवै रो पाणी / श्याम महर्षि
Kavita Kosh से
पुश्तैनी खेत रै
खुदतै कुवै मांय
सुपनौ हुयग्यो पाणी,
मीठै पाणी री
खोज मांय
खुदतो कुवो
खोस लियो
म्हारो घर,
आभै अर धरती माथै
निवड़तै पाणी रो
सुरंगो सुपनों
म्हारी सुख री
नींद मांय
घाल रैयो बिझौग,
खुदतै कुवै सूं
ऊंची आंवती बाल्टी रै
खुड़कै सूं
म्हारी आंख्यां मांय
चमक्या तारा पाणी रा,
म्हारै पेट सूं ई
घणौ ऊण्डो हुयग्यो
म्हारो कुवो
अर पाणी-पाणी
हुयगी है म्हारी मनषा।