भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कूर्म / साधना सिन्हा
Kavita Kosh से
यह कैसा अन्याय
अभेद्य कवच में
बन्द एक प्राण
मन तो होता होगा
कर लें बातें
कभी तो होता होगा
मन
अपनों से मिलने
देखी विवशता तुम्हारी
चलने, चढ़ने में देह भारी
गिरते उल्टे जब
सुनी चीत्कार तुम्हारी
‘मुक्त करो’ मुझको
मुक्त करो
लादा गया जीवन
क्रिया, प्रक्रिया का परिभ्रमण
याद नहीं कुछ भी मुझ को
किसकी करनी यह जन्म
चीखे तुम कूर्म
क्यों कवच में मेरा मर्म
मिलेगा क्या अगला
सुख-स्वातंत्र्य
स्वच्छन्द देह
वानी, विवेक , विचार
अभेद्य कवच में
बन्द क्यों प्राण ?