भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कृतज्ञ हूँ महामाया / राजेश्वर वशिष्ठ
Kavita Kosh से
अपनी कक्षाओं में घूम रहे हैं
असंख्य ग्रह और उपग्रह
जुगनुओं की तरह चमक रहे हैं तारे
आकाशगंगा के बीच
तुम्हें खोजता चला जा रहा हूँ मैं
जैसे कोई साधक जाता है
देवालय अपने आराध्य की अर्चना के लिए !
रत्नजड़ित अलौकिक पीताम्बरी को सम्भाले
तुम बिखेर रही हो अपनी कृपा-मुस्कान
जन्म लेती है एक नई सुबह
पेड़ों पर चहकती है चिड़िया
चटख कर खिलती है एक गुलाब की कली
तुम्हारा होना ही हर सृजन का मूल है देवि !
मैं बहुत कृतज्ञ हूँ
एक बच्चे की तरह तुम्हें निहारते हुए
तुम ब्रह्माण्ड में स्त्री हो महामाया !