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कृति / विमल राजस्थानी

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यह सौन्दर्य-राशि, धरती की निधि,प्रकाश की धारा
रूप-सिन्धु उत्ताल, न दिखता कोई कूल-किनारा
बाहुपाश में भर लेने को हृदय कसमसाता है
(शिल्पकार ! तू क्यों अपनी सामर्थ्य भूल जाता है)
उधर चल रहा चिन्तन मन में, हाथ कार्य में रत हैं
प्रेमोदधि उमड़ा है फिर भी वह अतिशय संयत है
स्वाभाविक है आकर्षण का तीव्र, प्रज्वलित होना
पर दुर्लभ वासव के उर का पाना कोई कोना
हृदय-समर्पण वह अपना प्रतिमा में ढ़ाल रहा है
भीतर-भीतर प्रेम उसे शूलों-सा साल रहा है
क्यों न प्रेम को कला-रूप में ही साकार करूँ मैं
वासव की प्रतिमा में ही अपने मन-प्राण भरूँ मैं
चाह सार्थक करूँ, शिल्प को रच-रच सुगढ़ बनाऊँ
अपनी कृति पर, मुग्ध भव से, बार-बार बलि जाऊँ
पर निर्माण पूर्ण होते ही संग छूट जायेगा
  अधरों तक आते-आते मधु-पात्र फूट जायेगा
तृषा-ज्वाल की लपटें पहले-सा ही दाह भरेंगी
अग्नि-कणों से,प्यासी शिरा-शिरा, चीत्कार करेंगी
हाथ आ गयी सहज भव से आशा की जो डोरी
संभव है जयमाल बना दे उसको रूपसि गोरी
यही सोच शिल्पी ने तृपित दृष्टि से उसे निहारा
ध्यान-मग्न वासव निश्चल थी ज्यों नभ का धु्रवतारा
 वह तो अपना हृदय भिक्षु के पास छोड़ आयी है
उसके रंध्र-रंध्र में तो भिक्षुक की छवि छायी है
पढ़ लेती है नारी क्षण में नर-नयनों की भाषा
 वह पहचान तुरत जाती नयनों में छिपी पिपासा
शिल्पी की नासमझी पर वासव मन में मुस्काई
उसे निरीह व्यर्थ के प्रेमी पर करूणा हो आयी
पुरूष सदा ही नारी पर आसक्ति बिछाता आया
बिन माँगे, बिन चाहे ढुलमुल हृदय लुटाता आया
तीव्र वासना के प्रकोप से भ्रष्ट-बुद्धि होता है
ज्ञान, विवेक, विचार, सुसंयम पलभर में खोता है
कहता जिसको प्रेम, शरीराकर्षण का उद्भव है
कामासक्ति प्रछन्न, प्रेम होना न सहज-संभव है
नर के अन्तर में नारियाँ कई आती-जाती है
किन्तु, तृप्ति अंतिम साँसों तक टिकी न रह पाती है
होता नहीं पुरूष के प्रति आकर्षण यों नारी का
धन्यवाद वह भले जता दे, विहँस, सुउपकारी का
एक पुरूष भाता हेै जो भी, करती सहज समर्पण
नख से शिख तक उसे देख पाता है केवल दर्पण
शिल्पकार भी अन्यों जैसा लोभी है, लोलुप है
मन ही मन हँस कर भी वासव चित्र सरीखी चुप है
दया भरी आँखें उसने शिल्पी के ऊपर डालीं
पुनः पुलक लिपटी अपने ही सावन से हरियाली
आकृति कर दे जो चकाचौंध भूगोल, खगोल, चराचर को
दे डाल भुलावे में क्षण भर जो सृष्टि रचियता ईश्वर को
माथे पर है बिन्दी ऐसी ज्यों सिमट आ सटा पूर्ण चंद्र
खंजन-सी कजरारी आँखों से ज्योति झर रही मंद-मंद
शुक की-सी नाक सुगढ़ जिसमे नथ करती हीरो की चम-चम
छिटका प्रकाश, रवि के टुकड़े होेने का दिखलाता हैै भ्रम
पतली, लम्बी ग्रीवा, निर्मल जल-सी झलमल-झलमल करती
शोभित काले तिल से सुडौल-सी चिबुक चतुर्दिक द्युति भरती
काली अलकों की सुमन गुँथी वेणियाँ दीखतीं हैं ऐसी
लहरा-लहरा कर अभी कि झट डँस लेंगी नागिन जैसी
हैं अरूण अधर गुलाब जैसे, स्मिति पराग-सी झरतीहै
सुन्दर कानों की मणि-झालर मन में आकर्षण भरती है
पतली, लम्बी बाँहो के मध्य गठीले, गोल उराज सजे
सम्पूर्ण कोष रस का उंडेल जो विधि के करों गये सिरजे
संगम पर त्रिवली सजी-धजी मृदु भार उरोंजों का ढ़ोये
सीधी अनंग-चम्पक-रेखा, मन निरख-निरख सुध-बुध खोये
मांसल नितंब चिकने-चिकने आकर्षण के हैं चरम बिन्दू
है नाभि-कुंड गहरा-गहरा ज्यों सिमट गया हो सुधासिन्धु
जाँघें हैं पृथुल कमल-किसलय-सी मसृण कि हाथ फिसल जाये
भौंरों के झुंड उड़ा कर ज्यों मन का इन्द्रीवर खिल जाये
आलक्तक सजे चरण ऐसे, संध्या सिन्दूर लुटाये ज्यों
है अरुण एड़ियों से मधुरिम स्मिति झरती द्युति छाये ज्य