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केंचुली का रह जाना / निर्देश निधि
Kavita Kosh से
बाबा उस गुरु पूर्णिमा को
सूरज के छिप जाने और
चाँद के देर से आने पर
साँझ के धुंधलके की ओट लेकर
चुपचाप छोड़ भागे थे तुम शरीर
जैसे छोड़ जाता है साँप केंचुली
बन जाता है पुनः चुस्त फुर्तीला
क्या तुम भी छोड़ गए थे उस साँझ
आँगन वाली खाट पर अपनी थकान
तुम्हारे जाने ने मुझे बना दिया था मुखिया घर का
पगड़ी पहना कर रख दिये थे
घर के सब बोझ सिर पर
उसी दिन से मैंने भी शुरू किया था
देखना बड़के का सिर
जिस पर बंधनी थी पगड़ी
मेरे थक जाने के बाद
सोचती हूँ बदला क्या?
सिर बदला, पगड़ी बदली पर
यथावत रहा मुझमें तुम्हारा होना
जैसे तुममें तुम्हारे पिता का
और उनमें उनके पिता का होना
जन्मना, बढ़ना-बुढ़ाना, थक जाना
और आँगन वाली खाट पर
फिर एक केंचुली का रह जाना।