कैसे आऊँ / अमरजीत कौंके
मेरी चेतना
हज़ार टुकड़ों में बँटी पड़ी है
मेरी स्मृतियों में
अतीत के कितने ग्रहों
उपग्रहों के
टुकड़े तैर रहे
मेरे भीतर
कितने जन्मों की धूल उड़ती
मेरे जंगलों में
कितनी डरावनी लुभावनी
आवाज़ें तैरतीं
मेरे समंदरों में कितने ज्वारभाटे
खौलते पानियों का संगीत
मैं चाहता हुआ भी
इन आवाज़ों
शोर संगीत के भँवरजालों से
मुक्त नहीं हो सकता
चाहने पर भी मिटा नहीं सकता मैं
अपनी यादों की तख्ती पर से
कितनी लकीरें
कटी-फ़टी शक्लें
मैं जानता हूँ
तुम मुझे संपूर्ण चाहती हो
पूरे का पूरा
संपूर्ण एक
जो सदा तुम्हारा
और सिर्फ तुम्हारा हो
लेकिन मेरी दोस्त!
मैं बचपन की कच्ची उम्र से
हज़ारों टुकडों में बँटा
ख़ुद ब्राहमाण्ड में बिखरे
अपने टुकड़े
चुगने की कोशिश कर रहा हूँ
मैं पूरे का पूरा
तुम्हारा
सिर्फ तुम्हारा बन कर
तुम्हारे पास कैसे आऊँ...