कैसे कवि हो? / मणिभूषण सिंह
धरा छोड़ उड़ते हो!
कैसे कवि हो?
अपनी उपत्यक्ता पर क्षण भर भी
ठहर नहीं पाते हो!
क्या लाते हो?
क्यों गहन घाटियों में
रह-रह कर उतर-उतर जाते हो!
क्या पाते हो?
क्यों वैनतेय सम
अम्बर पथ पर
अभ्रखण्ड गिनते हो!
क्या चिनते हो?
प्रेक्षाकारी तो न हो,
किन्तु प्रेक्षण-बल तो तुमको है!
उस बल के होते हुए
मात्र कल्पक होकर
अपने यथार्थ में रंग भरा करते हो!
क्या करते हो?
सत्याभिधान हो!
फिर क्यों तुम सत्यानृत को गहते हो?
क्या कहते हो?
कल्पनाजन्य-मिथ्यात्व-मूढ़ हो
अपर-लोक रहते हो!
क्यों बहते हो?
किसलिए नहीं तुम भू पर ही रहते हो?
केवल व्योमदहृ सहते हो!
अहरह दह में जा दहते हो!!
सब सहते हो!!!
धरा छोड़ उड़ते हो!
कैसे कवि हो?
अपनी उपत्यक्ता पर क्षण भर भी
ठहर नहीं पाते हो!
क्या लाते हो?