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कोंपले / रेखा चमोली
Kavita Kosh से
छोटी-छोटी चींटियां
सरपट दौड़ रही हैं
यहां से वहां
चिड़ियां चहचहाकर
बना रही है घोंसला
कभी धीरे कभी तेज
चलती बसन्ती हवा के
स्पर्श से
रोमांचित है सारा बदन
छोटे-छोटे हरे धब्बों
से सजा
गर्व से खड़ा
उपस्थिति का भास
दे रहा है ठूंठ
फिर से कोपलें
फूटने लगी हैं
उसने हार नहीं मानी
और ढूंढ ली
जीवन की संभावनाएं।