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कोई और / सुशांत सुप्रिय
Kavita Kosh से
एक सुबह उठता हूँ
और हर कोण से
खुद को पाता हूँ अजनबी
आँखों में पाता हूँ
एक अजीब परायापन
अपनी मुस्कान
लगती है न जाने किसकी
बाल हैं कि
पहचाने नहीं जाते
अपनी हथेलियों में
किसी और की रेखाएँ पाता हूँ
मनोवैज्ञानिक बताते हैं कि
ऐसा भी होता है
हम जी रहे होते हैं
किसी और का जीवन
हमारे भीतर
कोई और जी रहा होता है