कोई फूल धूप की पत्तियों में, हरे रिबन से बंधा हुआ ।
वो ग़ज़ल का लहजा नया-नया, न कहा हुआ न सुना हुआ ।
जिसे ले गई अभी हवा, वे वरक़ था दिल की किताब का,
कही आँसुओं से मिटा हुआ, कहीं, आँसुओं से लिखा हुआ ।
कई मील रेत को काटकर, कोई मौज फूल खिला गई,
कोई पेड़ प्यास से मर रहा है, नदी के पास खड़ा हुआ ।
मुझे हादिसों ने सजा-सजा के, बहुत हसीन बना दिया,
मिरा दिल भी जैसे दुल्हन का हाथ हो, मेहन्दियों से रचा हुआ ।
वही शहर है वही रास्ते, वही घर है और वही लान भी,
मगर इस दरीचे से पूछना, वो दरख़्त अनार का क्या हुआ ।
वही ख़त के जिसपे जगह-जगह, दो महकते होंठों के चाँद थे,
किसी भूले बिसरे से ताक़ पर, तहे-गर्द होगा दबा हुआ ।